जीवन में सकारात्मक परिवर्तन सम्भव है। दुःख का सुख में परिवर्तन, शक्तिहीनता का शक्ति सम्पन्नता में परिवर्तन, यहाँ तक कि गुलामी का बादशाहत में परिवर्तन घटित हो सकता है।* परन्तु तभी, जब यह कोई स्वयं चाहे। बीते *इतिहास के पन्ने कथा सुनाते हैं कि स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका में जाकर घोषणा की- मित्रों! मैं तुम्हारे लिए परिवर्तन का सन्देश लेकर आया हूँ। मैं तुम्हें वह रहस्य बताने आया हूँ,* जिसे जानकर तुम अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्ति सम्पन्नता में और दासता को प्रभुता में परिवर्तित कर सकते हो। हाँ तुम भी, तुम सभी भी बन सकते हो सम्राट्।
उन्हें सुनने वाले चौंके- *भला इस संसार में सभी एक साथ सम्राट कैसे हो सकते हैं?* उत्तर में रामतीर्थ ने हँसते हुए कहा- हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहाँ सभी सम्राट हो सकते हैं। हालांकि *वर्तमान का सच यही है कि अभी हम जिस संसार को जानते हैं, वहाँ सभी गुलाम हैं।* बस वे स्वयं को सम्राट समझने के भ्रम में जरूर हैं।
महात्मा ईसा ने कहा था, *परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है और हममेंं से प्रायः हर एक ने इस ओर से मुँह मोड़ रखा है।* हम तो बस बाहर की दुनिया में संघर्ष कर रहे हैं। उलझे हैं- बहुत कुछ पा लेने की प्रतियोगिता में। पर क्या यह पता नहीं है कि जिन्होंने बाहर के राज्य को जीता है, उन्होंने स्वयं को खो दिया है। और *जिसने स्वयं को खो दिया है, भला सम्राट कैसे हो सकता है? क्योंकि सम्राट होने के लिए कम से कम स्वयं होना तो जरूरी है।*
बाहर का द्वार दरिद्रता की ओर ले जाता है। *वासनाएँ, तृष्णाएँ, कामनाएँ कभी किसी को मुक्त नहीं करतीं, बल्कि वे सूक्ष्म से सूक्ष्म और सख्त से सख्त बन्धनों में बांध लेती हैं।* वासना की सांकलों से मजबूत सांकलें न तो अब तक बनायी जा सकीं हैं और न आगे कभी बनायी जा सकेंगी। *दरअसल इतना मजबूत फौलाद और कहीं होता भी नहीं है। इन अदृश्य जंजीरों से बंधा हुआ व्यक्ति न तो सुखी हो सकता है* और न स्वतंत्र और शक्ति सम्पन्न।
यह तो केवल तभी सम्भव है- *जब जीवन में परिवर्तन का पवन प्रवाहित हो। बहिर्मुखी वृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो, संघर्ष संस्कारों की शुद्धि के लिए हो।* प्रतियोगिता स्वयं को पहचानने और पाने के लिए हो। निश्चय ही - *जो स्वयं को पहचान सके, पा सके, वे ही अपने दुःख को सुख में, असहायता को शक्ति सम्पन्नता में और दासता को बादशाहत में परिवर्तित कर सकते हैं।
परिवर्तन